Monday 28 May 2012

अंदाज़-ए-बयाँ

 हर किसी ने हर दौर में जब भी कभी ग़ज़ल-ओ-रूबाईयात का ज़िक्र किया मिर्जा ग़ालिब हर बयाँ का किरदार बने रहे,आगरा में जन्मे मिर्जा दिल्ली की शाह-ए-चमन का नूर और हिंदुस्तान के आम-ओ-ख़ास के दिल का फितूर बने रहे,ये सच है कि किसी इनसान की जीते जी जो क़द्र नही होती गालिबन फना होने के बाद वो अपने दायरे में रहे इंसानो के दिल का नूर बना जाता है.ग़ालिब भी दुनिया के इस दस्तूर से अलग ना राह सके ये सच है कि ग़ालिब का अंदाज़-ए-बया कैसे फिर भी उनकी दर्द भरी ज़िन्दगी पर लिखने की मैंने भी ठानी पर ये न सूझा कि शुरुआत कहा से करू गम से या खुशी से पर "जब इब्तिदा की तो बस लिखता ही चला गया,कलामे-बया अपने खुद-ब-ख़ुद होता गया" पन्नो में मिर्जा को समेटना तो नामुमकिन है (क्योकि कहा जाता है कि "गदर" के बाद जब बहादुर शाह "ज़फर" को कालापानी भेज दिया गया तो महफिले बंद और किले की रौनक खत्म हुई कमाने-खाने की आदत तो शाही शायर होने के नाते कभी थी नही ऊपर से मयकशी की लत फिर भी उनकी शायरी के दीवाने कम न थे मयखाने  में उनकी एक नई गज़ल पर शाम की मयकशी मुफ्त हो जाया करती थी) पर कोशिश तो की जा सकती है क्योकि यह और भी सच है कि शायर तो किताबो में बिखरता है और पन्नो में बसता है,किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि "तुझसे बिछडा तो मै किधर जाऊंगा,मै तो शायर हूँ किताबो में बिखर जाऊंगा" मेरा ये कलम नामा ग़ालिब की कहानी कम और उनके शेरो-गज़ल से निकली दास्तान ज्यादा है.शान-ओ-शौकत में पले बढे मिर्जा ने अपनी तमाम उम्र परेशानियो में उलझ कर गुजारी,शादी शुदा मिर्जा ज़िन्दगी की ऊब को दूर करने के लिए ईश्क़ भी किया और ईश्क़ में वो सब कुबूल किया जो राजो-नियाज में हमेशा से होता आया है,महबूबा से छेडछाड करते हुए कहते है कि-यार से छेड़ चली जाय असद,न सही वसाला तो हसरत ही सही, बोसा देते नही और दिल पे है हर पल निगाह,दिल में कहते है कि मुफ्त में आए तो माल अच्छा है.  छेड़-चाँद कराते वक्त यार की बदगुमानी से भी वो बे-आसना न थे "ले तो लू सोते में उसके पाव का बोशा मगर,अइसी बातों से वो काफिर बदगुमां हो जायेगा" बदगुमानी को बेपरदा करते हुए वे ये भी कहते है कि "हमने माना कि तगाफुल न करोगे हरगिज,खाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक." शायर तो उनके लबो‍ पर मचलते रहते थे और सुनाने वाला उन्हें फौरन ही क़लमबंद कर लेता था.इज़हारे इश्क की लगान में वो तड़फ के कहते थे-उधर वो बदगुमानी है इधर ये नातवानी है,न पूछा जाए है उनसे न बोला जाय है हमसे.....आह को चाहिये इक उम्र  असर होने तक,कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक.....अपनी महबूबा पअर वे जब भी अल्फाज का जादू डालते थे तो वह् हमेशा शर्मिन्दा हो जाती थी तब वो हँस के कहते-"की मेरे कत्ल के बाद उसने जफा से तौबा,हाय उस ज़ूद-पशेमा का पशेमा होना" अपनी महबूबा को पैग़ाम देने की कहने वाले को वे कहते कि-"तुझसे तो कुछ कलाम नही लेकिन ऐ नदीम,मेरा सलाम कहियो अगर नंबर मिलें" फिर-"खत् से बढ़ कर है मुझे दीदार की लगान,मै भी चला चालू न इसी नामबर के साथ" खूबसूरती के शायर मिर्जा उस पर भी ताकीद करते कि-"ज़िक्र उस परीवश का और फिर बया अपना,बन गया रकीब आख़िर था जो राजदा अपना"  इश्क की असलियत को भी वो बेनकाब करते है-"मोहब्बत में नही फर्क जीने और मरने का,उसी को देख के जीते है जिस काफिर पे दम निकले" इसके बावजूद दिल से मजबूर हसरते वस्ल में तड़पते मिर्जा जोश-ओ-शुकून से कहते है--"हमारे जेहन में इक फिक्र का नाम है विशाल,कि गर न हो तो जाए कहा हो तो क्यो कर हो"  अपनी तड़प को समझते पर महबूब के लिए दुआ भी करते --"जान तुम पर निसार करता हूँ,मै नही जानता कि दुआ क्या है" गम से न कभी वो दूर थे और न ही बेनियाज होना चाहते थे-"कैदे-हयात-ओ-बन्दे-गम असल में दोनों एक है,मौत से पहले आदमी गम से नजात पाये क्यो" शराब के इंतिहाई शौकीन मिर्जा दिन-रात पीते थे और जब कभी उनकी माशूका मना करती तो वो कहते कि--"मै और बज़्म-ए-मय से यू तर ना काम आऊ,गर मैंने की थी तौबा साकी को क्या हुआ था" जब मयकशी के लुत्फ के बारे में कोई पूछता तब वो कहते--"मय से गरज निशात है किस रूसियाह को,इक गुना बेखुदी मुझे दिन रात चाहिये" पैसे की तंगी और लोगो के टनों से तंग आकर चंद दिनों के लिए शराब छोडी  तो भी ख़ुद को भरोसा न हुआ--"ग़ालिब छूटी शराब पर अब भी कभी-कभी,पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-माहताब में" और फिर चंद दिनों बाद मयकशी का दौड़ फिर से शुरू--"साकीगरी की शर्म करो आज वर्ना हम,हर शब ही करते है मय जिस क़दर मिलें" वो शराब से तौबा कराने वाले वैज़-ओ-शेख पर फब्तियां भी कसते--"कहा मयखाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहा वाईज़,पर इतना जानते है कल वो जाता था कि हम निकले" उन्होंने ज़िन्दगी के हर पहलू को अपने शेरो-ग़ज़ल में तौला चाहे वो गम-ए-ज़िन्दगी हो जन्नत की ख्वाहिश,आशियाना हो के उस पे गिर रही बराक,जफा हो के हो वफ़ा की जुस्तजू--"ग़मे हस्ती का असद किस से हो ज़ुज़मर्ग इलाज,शमा जलती है शहर होने तक"  उम्र की दीवारों को पर करते हुए मिर्जा धीरे-धीरे अपनी ज़िन्दगी के साहिल पर पहुँच रहे थे पर उस उम्र में भी मिर्जा ने अपनी रंगीनियां कं नहोने दी --"इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले है तो क्या,हठ आए तो उन्हें हठ लगाए न बने" उनके दोस्त और उस दौड़ के एक और महान शायर "जोक" उनकी इन रंगीनियों से अकसर खफा होते एक बार जब वो बीमार थे तब मिर्जा साहब उनका हाल पूछने गए वहा जाने पर उन्होंने "जोक"का हाथ पकडा और लुत्फ लेते हुए कहा--"नाकर्दा गुनाहों को भी हसरत की मिलें दाद,या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सजा है" तब जोक ने भी चिढ़ कर जवाब दिया--"क्या देखता है हाथ मेरा छोड़ दे ग़ालिब,या जान ही बदन में नही नब्ज क्या चले" हाजिर जवाब मिर्जा ने उसी लहजे में तपाक से जवाब दिया--"वा गया भी मै तो उनकी गलियों का क्या जवाब,याद थी जितनी दुआये सर्फ-ए-दरबा हो गई" और इस तरह शेरो-शायरी का जो शमा बंधा तो वो सुबह होने तक चलता रहा,किसने देखा और किसने सुना होगा इन हस्तियों का अंदाज़-ए-बया,बा गालिबन ये उनकी आखिरी बज़्म थी जिसमे वे तनबोश हो कर बोले,इसके बाद किसी बज़्म में शिरकत नही की और तनहाइयों में दिन गुजरते हुए रुखशत के दिन का इंतज़ार करते रहे और उनकी संजीदा आँखें,बोझिल पलके खुदाई नूर बरसाती रही--"गो हाथ को जुम्बिश नही आँखों में तो दम है,रहने दे सागर-ए-मीना मेरे आगे" उनकी इस हालत पर शायर "मीर" ने कई शेर लिखे --"कदम जमा न सका बहाव ऐसा था,के धँस के रह गया साहिल कटाव ऐसा था,वो एक उम्र से टूटा था अन्दर से,किसी पे खुल न सका,रख-रखाव ऐसा था" और आखिरकार तिहत्तर बरस की उम्रमें वह् बेमिसाल हस्ती ज़िन्दगी के साहिल में धँस गई ,पर उससे जो गुबार उठा वो आज के दौड़ में भी हर आम-ओ-ख़ास के दिल पर छाया हुआ है,हर शख्श यही कहता नजर आता है कि ऐ ग़ालिब ताकयामत इस कायनात में तेरा इक-इक हर्फ चमकता नजर आयेगा,सूरज चाँद सितारों की चमक भी तेरे हरफों की चमक कं न कर सकेगी...."मै सोता हूँ और जागता हूँ और जग के फिर सो जाता हूँ,सदियों का पुराना खेल हूँ मै,मै  मर  के अमर हो जाता हूँ..                                                                                    मेरा यह कालम वर्ष 1995 में दैनिक " देश-बंधु-सतना" में प्रकाशित हो चुका है,पुरानी डायरी के कुछ अंश आपसे बाँट रहा हूँ,हौसलाफजाई चाहूंगा           आपका राजेश "मस्ताना"

Saturday 26 May 2012

वो आँखों की मासूमियत याद आती क्यू है..


मेरे अल्फाज़ो में आज ये नमी सी क्यो है,बेखबर ये दिल के पैमाने छलकते क्यू है.. खुला जो राज-ए-दिल तो महकी ये फिज़ा क्यू है,शानो पे लहराती जुल्फे आज फिर से बेचैन क्यू है.. ये खामोशी ये बेताबी सी आज रात क्यू है,यादों के डेरे में ये हलचल सी क्यू है.. वो आँखों की मासूमियत याद आती क्यू है,लिखता हू तो कलम थरथराती सी क्यू है.. जब्त किया था खूब दिल-ए-नातवान को,अब क्यो बहकता है "मस्ताना"अब सिसकता क्यू है.........राजेश मस्ताना

सन्दर्भ-पत्रकार अरुण त्रिपाठी की पिटाई,अनूपपुर एम.पी.

विषय-अहिंसा या क्रांति... कई दिन से हमारे मित्र गाँधी को ग़लत और क्रांतिकारियों के तरीकों को सही ठहरा रहे थे,जबकि मै लगातार ये कहाँ रहा था कि क्रांतिकारी भी गाँधीजी के कट्टर समर्थक थे..तो क्यो क्रांतिकारियों के रास्ते को सही मानने और गाँधी की बुराई करने वाले लोगो ने धरना/प्रदर्शन/ज्ञापन/माँग आदि किया जिन्हें अपना आदर्श मानते है क्यो नही उनके नक्शे-कदम पर चले..इसीलिये मैंने कहावत कही थी कि"आज हर कोई चाहता है कि भगत सिंह पैदा हो लेकिन पैदा वो पडोसी के घर में हो"...कुल मिलकर कहना आसान करना मुश्किल..जिन आदर्शो को हम अपने जीवन में अपनाना तो दूर् उस पर थोडा भी अमल नही कर सकते उन्हें लेकर व्यर्थ की बातें करना कहा तक उचित है? या ये सिर्फ़ फेसबुकिया बातें है या सिर्फ़ दूसरो की बुराई करने के छिड़-परिचित पुराने तरीके...बहुत खुल कर नही लिखना चाहता क्योकि "फेसबुकिया देश भक्त "काफी समझदार है...जय हिंद

ये देश राम का है--रावण का नही,ये देश गाँधी का है गोडसे का नही

ये देश राम का है--रावण का नही,ये देश गाँधी का है गोडसे का नही,ये देश सुभाष चन्द्र भगत सिंह आज़ाद और ऐसे तमाम भारत माँ के सपूतों का है छद्म रास्ट्रवादियो का नही,ये देश ईसा का है जिन्होंने कश्मीर की वादियों के शांत माहौल में शान्ति महसूस की,ये देश मोहम्मद साहब का है जिसका प्रमाण "हजरत बल दरगाह" में मौजूद है,ये देश खान अब्दुल गफ्फार का है जिन्ना का नही,मुस्लिम लीग की स्थापना संघ के निर्माण के बाद हुई उन्होंने अलगाव-वाद को हवा दी,धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान की हालत क्या है और हमारी धर्मनिरपेक्षता के कारण हम महाशक्ति बनाने की ओर है,आजादी के पहले भारत छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था जिसे वर्तमान भारत का रुप पटेल और नेहरू ने दिया उन्होंने किया "भारत निर्माण" और पाकिस्तान के दो टुकडे किसने कराये ये भी सबको मालूम है,वंश-वाद की बात करने वालों को तब वंश-वाद नही दिखता था जब सीनियर बुश के पुत्र जूनियर बुश के बुलवाए पर आए-दिन बिरयानी खाने अमेरिका जाते थे,सारे देश के कांग्रेसी नेता इंदिराजी के खिलाफ होकर उन्हें ही पार्टी से हटा दिया था "आपातकाल के बाद" तब उन्होंने इन्दिरा काँग्रेस बने थी और देश की जनता ने चुनावों में दिखाया की असली काँग्रेस कौन सी है बात रही अन्ना के आंदोलन की तो उन्हें सरकारी लोकपाल से सिर्फ़ इतनी तकलीफ है कि उसमे एन.जी.ओ.को रखा गया है और मुझे "जनलोकपाल" से सिर्फ़ इतनी दिक्कत है उसमे एन.जी.ओ नही है...क्योकि यू.पी.ए.सरकार ने भ्रस्ट एन.जी.ओ. जिन पर सरकार के कार्यों में सहयोग देने के बजाय पैसा खा लेने का आरोप था..3 लाख एन.जी.ओ.बैन किए सरकार ने...जय हिंद सारी बातों पर स्वस्थ और प्रामाणिक बहस के लिए तैयार हूँ....बुद्धिहीन कृपया दूर् ही रहे..

विकल्प हीन विपक्ष!!

अगर पेट्रोल के दाम बढे है तो लोगो की पेमेंट और कमाई भी बढी है,ये सब जानते है कि जितनी माँग बढती है उतना उत्त्पाद का मूल्य बढता है,आपूर्ति बढने से मूल्य घटता है किन्तु आपूर्ति देशज होगी तब पेट्रोलियम उत्तपाद हमे आयात कराने पद रहे है जिनका आयात निकट भविश्य में घटने वाला नही है,जो विलासिता की वस्तुयें है उनका मू्ल्य बढना कोई ग़लत नही है,देश में महँगाई बढने का मूल कारण क्रय-शक्ति का बढना है,सरकार पूरी कोशिश के बाद भी महँगाई थमने का नाम नही ले रही है,क्या चाहती है जनता सरकार स्तीफा दे-दे ये जनता तो नही लेकिन वो जरूर चाहते है जो कभी बाबा अन्ना के मुखौटे लगाकर लगातार सरकार को स्थिर करने में लगे है सरकार में मनमोहन-मोंटेक सिंह-प्रणव मुखर्जी जैसे ख्यात-लब्ध अर्थशास्त्री है और जब ये असफल हो रहे है तो किनके भरोसे आप देश छोडना चाहते है जिनसे प्याज के रेट भी कंट्रोल ना हुए और दिल्ली की सरकार गवानी पडी और सरकार भी ऐसी गई की पिछले चार चुनाव से प्याज के आँसू रो रहे है..जनता देश-हित में थोडा बरदाश्त करे सब ठीक होगा और सरकार द्वारा उठाये गए कदमो का असर भी जनता के हित में होगा...पेट्रोल की कीमतें बढने पर सबसे ज्यादा हल्ला गोल्ड-फ्लैग वाले मचा रहे है देश-हित में रोज़ दो गोल्ड फ्लैग कं पिएँ भाई...देश-हित में...जय-हिंद

चाहे कितने ही टुकड़ों में बिखरा ये तन होगा,इस तन पे माँ तिरंगे का कफन होगा..

बात 1984 की है ,युवा मन और राजीव की शख़्शियत 21 वी शताब्दी के सपने और सपनो की उड़ान..दुनिया ने हमेशा नई सोच का उपहास उड़ाया है सो उनके लिए भी व्यंगो का खूब इस्तेमाल हुआ फिर भी वो न रुका ना डरा और बढता गया,18 साल के नौजवानों को मत देने का अधिकार,जैसे कोई ये कह रहा हो कि "ऐ नौजवान लो चुनो अपने मन की सरकार" आज जिस पंचायती राज और ग्राम सभाओं की बात हो रही है वो बिल उस दौर में पास कर पाना उनके ही बस में था.मिखाइल गोर्बाचोव जिनके निजी मित्र हो चुके थे और चाइना के देंग जिनकी हस्ती किसी पहचान की मोहताज नही ने प्रोटोकाल की परवाह ना करते हुए उनकी अगवानी में कहा था कि "आओ मेरे नौजवान मित्र चीन की धरती में तुम्हारा स्वागत है" उनकी शख़्शियत ही कुछ ऐसी थी की वो भारत ही नही विश्वं के मंच पर वैश्विक नेता के रुप में स्थापित होते जां रहे थे.बोफोर्स का भूत और चुनाव बाद गायब..एक नए राजीव का उदय हो रहा था कि 21 में 1991 की वो मनहूस शाम आज भी नही भूलती वो तूफान और बारिश,हम क्रिकेट खेल कर लौट रहे थे साथ में हमारी टीम ऐसा लग रहा था का कि कोई बड़ा परिवर्तन होने वाला है,संचार का एकमात्र साधन दूरदर्शन सुबह पता चला कि "एक मानव बम" ने उनकी जान ले ली..आज संचार क्रांति के युग में हम उनके सपनो का भारत बनते हुए देख् रहे है,ईश्वर ने उन्हें प्रिय मानते हुए अपने पास बुला लिया.उनके शहीद दिवस पर इतना ही कहूँगा कि शायद वी.पी.सिंह सरकार ने उनसे जेड प्लस सुरक्षा ना छीनी होती तो शायद वे बच सकते थे..उनको शहीद हुए आज 21 वर्ष हो गए और 21 मई उनके हत्यारों की फाँसी की सजा पर रोक लगाने वालों को आईना दिखा रही है कि आतंकवाद का कोई मजहब नही होता....उनके शहीद दिवस पर उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि....भारत माता की जय